मेरी तरह सभी
इस बात से
सहमत होगे कि
पिछले डेढ़ साल
से मंदी का
दौर चल रहा
है. जितने जनों
से भी चर्चा
होती है उन
सभी का तो
यही कहना है
कि व्यापार आदि
में बढ़ोतरी की
जगह कमी ही
आई है. जमीन
जायदाद के धन्धे
का तो सबसे
बुरा हाल है
क्योंकि यह अपने
चरम पर पहुँच
गया था अब
इसमे आई भारी
कमी सबको खल
रही है. इसके
जानकार लोग कहते
है ज़मीनो के
दामो में जितनी
वृद्धि 12-13 सालों में होनी
चाहिए थी वह
मात्र तीन चार
सालों में ही
बढ़ गई थी
इसलिए अब इससे
जुड़े लोग ज्यादा
परेशान है. शायद
यह कृतिम व्रद्धि
थी जबकि इसमे
वृद्धि धीरे धीरे
होती तो इससे
जुड़े लोग शायद
इतने परेशान नही
होते. दूसरी तरफ़
ग्रामीण क्षेत्रों को देखें
तो नई सरकार
बनने के बाद
से रोजगार गारंटी
योजनाओं का पैसा
भी गाँव तक
नही पहुँच पा
रहा है या
इसमे कमी आई
है, जो गाँव
से कभी निकलते
नही थे वे
काम की तलाश
में है. लोगों
का पैसा जाम
है बाज़ार में
आ नही रहा.
देश में आर्थिक
वृद्धि ने रफ्तार
पकड़ी हो यह
बात हमारी समझ
से तो परे
है, बड़े कल-
कारखाने लगे हो
ऐसा भी दिखाई
नही दे रहा,
वैसे तो देश
के बड़े निवेशक
हर राज्य में
जाकर कागजो में
निवेश की बात
करते है सरकार
बार बार सबको
बुलाती है लेकिन वास्तविकता इसके
उलट ही नजर
आता है. आख़िर
ऐसा क्यों ? शायद
कई जगह बड़े
कारखाने लगाने वालों को
विरोध भी झेलना
पड़ता है इसलिए
वे पीछे हट
जाते है.
अब ज्यादा दूर नही
जाते अपने माधवनगर
के उद्योगों को
ही देख लीजिए
न जाने कितने
बंद पड़े है.
दाल मिल चलाने
वाले कई जन
तो मुंबई में
बैठ कर वायदा
बाज़ार का गेम
खेल रहे है.
यह तो सिर्फ़
उद्धरण मात्र है यह
बताने के लिए
स्थितियो में वाकई
बद्लाव आया है,
इसमे अब जिम्मेदारी
देश और राज्यो
के वित्त मंत्रियो
की ज्यादा है
उन्हें ही नीतियाँ
स्पष्ट करनी चाहिए
इसके अभाव में
चारो तरफ़ मंदी
ही मंदी नजर
आ रही है.
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